Friday, October 27, 2017

संवाद दो अधुरे दिलोंका...

आज वो मिलने आयी थी, मेरे साथ चलने आयी थी।
बोहोत वक्त लगाया मुझे खोजने में, ये केहकर चीडारही थी।
कैसे ना खोजता मिलने का वादा जो कीया था तुमसे,
उस रोज बरखा के मौसम में ठीक तुम्हारे घर के सामने हाथोंमे जुही की कलियाँ लिए बैठा था, तुम्हें वो बेहद पसंद थी।  उनकी मेहेक तुम तक पहुंची और तुम कीसी की परवाह किए बगैर दौडी चली आयी।

सब याद है मुझे कुछ भुली नहीं हु,
मैने दौड़कर तुम्हें सीनेसे लगाया था।
अगले ही पल में मैंने खुद को तुमसे अलग कर दिया था।
मुझसे फिर कभी ना मीलना ये केहने तुम्हारे करीब आयी थी। लेकिन देख तुम्हें सामने सब कुछ भुल गयी थी।

आज फीर वो शाम आयी है फीर बादल छाए हैं, बारीश फीरसे अपने गीत गुनगुना रही हैं। उस दिन भी मेरे साथ तुम थी, आज भी हो...
सिर्फ उस समय एक छाता था, आज दोनो भीगे हुए हैं।
वो चाय की गर्म प्याली, वो सर्दी भरा मौसम, वो बारीश और तेरा हाथों को छूकर चलना क्या याद है तुम्हें...

सुनो प्यार में तुम अकेले नहीं थे मै भी नशेमे झुम उठी थी
हर वो चीज जो तुम महसुस कर रहे थे, उन्हें मै भी आजमा रही थी।
फर्क बस इतना है कि मैं आगे बढी और तुम ख्यालोंमे कही खो गये।

बातो में उलझाना कोई तुमसे सीखे,

हा और पत्थर दिल बनना कोई तुमसे सीखे।


वेद 🍁

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