Friday, October 27, 2017

गुस्ताख बारीश

फीर वो शाम आयी जीसने सोचने पर मजबूर कर दिया,
फीर वो बात हूई जीसने दिमागमे खलबली मचा दी।
मुलाकातों का सिलसिला खत्म हो गया था, न जाने तभी बरसात कैसे हो गयी।
भीगी हुई सड़कों पर वो दौड़ने लगी थी, आज वो बारीश भी कुछ केहेना चाहती थी। कुछ समझ आये तो बात बनेगी, वरना खाली हाथ ये बरखा जाएगी।
बिखरी हुई वो कलीया जुही की, देख जीसे वो गाना- गुनगुनाने लगी। रूख गयी मेरी नजरे उस पर,
 और कमबख्त ये बारीश मुझे भीगाने लगी थी।
                       वेद 🍁      
                        

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